स्वर्ग और नरक भावनाओं में
एक गुरु के दो शिष्य थे। दोनों किसान थे। भगवान का भजन- पूजन भी दोनों करते थे। स्वच्छता और सफाई पर भी दोनों की आस्था थी, किंतु एक बड़ा सुखी था, दूसरा बड़ा दुखी।
गुरु की मृत्यु पहले हुई पीछे दोनों शिष्यों की भी। दैवयोग से स्वर्गलोक में भी तीनों एक ही स्थान पर जा मिले, पर स्थिति यहाँ भी पहले जैसी ही थी। जो पृथ्वी में सुखी था, यहाँ भी प्रसन्नता अनुभव कर रहा था और जो आएदिन क्लेश-कलह आदि के कारण पृथ्वी में अशांत रहता था, यहाँ भी अशांत दिखाई दिया। दुखी शिष्य ने गुरुदेव के समीप जाकर कहा- ” भगवन् ! लोग कहते हैं, ईश्वर भक्ति से स्वर्ग में सुख मिलता है पर हम तो यहाँ भी दुखी के दुखी रहे।”
गुरु ने गंभीर होकर उत्तर दिया “वत्स ! ईश्वर भक्ति से स्वर्ग तो मिल सकता है पर सुख और दुःख मन की देन हैं। मन शुद्ध हो तो नरक में भी सुख ही है और मन शुद्ध नहीं तो स्वर्ग में भी कोई सुख नहीं है।”
बुद्धिहीन वैज्ञानिक
एक बार चार मित्र यात्रा पर निकले। उनमें तीन बुद्धिहीन वैज्ञानिक थे और एक बुद्धिमान अवैज्ञानिक। मार्ग में उन्हें एक मरे हुए शेर का अस्थिपंजर मिला। बुद्धिहीन वैज्ञानिकों ने सोचा कि क्यों नहीं हम इस पर अपनी विद्या की परीक्षा कर लें। तुरंत एक ने उसका अस्थि संचय किया, दूसरे ने उसमें चर्म-मांस और रुधिर संचारित किया और तीसरा उसमें प्राण डालने ही वाला था कि चौथे बुद्धिमान अवैज्ञानिक ने कहा- “अरे-अरे, यह आप क्या कर रहे हैं? आप सिंह को जीवित करने जा रहे हो। वह जीवित होते ही हमें खा जाएगा। पहले अपनी रक्षा का उपाय तो कर लो।” लेकिन उसकी बात किसी ने नहीं मानी। लाचार, वह अकेला वृक्ष पर चढ़ गया। उधर तीसरे ने जैसे ही उसमें प्राण डाले शेर जीवित होकर उन तीनों को खा गया।
प्रत्यक्ष को देखने वाला आज का संसार भी इन बुद्धिहीन वैज्ञानिकों की तरह है। जो शरीर के लिए तो साधन बढ़ाते चले जा रहे हैं, पर आत्मा की ओर तनिक भी ध्यान नहीं देते।
निराश न लौटाओ
भगवान बुद्ध मृत्यु-शैया पर पड़े थे। उनकी जीवन-ज्योति के अस्त होने में कुछ ही विलंब था। सुभद्र नामक साधु ने यह समाचार सुना तो वह अपनी धर्म संबंधी कुछ शंकाओं को निवारण करने के उद्देश्य से उनकी सेवा में उपस्थित हुआ। पर आनंद ने, जो कुटी के द्वार पर स्थित था उसे भीतर जाने से रोका और कहा-” भगवान को इस समय कष्ट देना उचित न होगा।” पर सुभद्र बराबर आग्रह करता रहा कि उसे भगवान का दर्शन कर लेने दिया जाए। बुद्ध जी ने भीतर पड़े हुए इस चर्चा को अस्पष्ट रूप से सुना और वहीं से कहा- “आनंद ! सुभद्र को भीतर आने दो। वह ज्ञान- प्राप्ति की इच्छा से आया है, मुझे कष्ट देने नहीं आया।”
सुभद्र ने जैसे ही भीतर जाकर करुणा की उस शांत मूर्ति को देखा, वैसे ही बुद्ध जी के उपदेश उसके हृदय में प्रविष्ट हो गए और वह प्रव्रज्या लेकर बौद्ध भिक्षु बन गया। बुद्ध भगवान ने शरीरांत होते हुए भी किसी ज्ञान के अभिलाषी को निराश नहीं किया।
साधुओं के लिए संदेश
संसार के कुशल समाचार जानने के लिए एक दिन भगवान ने नारद को पृथ्वी पर भेजा। उन्हें सबसे पहले एक दीन दरिद्र वृद्ध पुरुष मिला जो अन्न- वस्त्र के लिए तरस रहा था। नारद जी को उसने पहचाना तो अपनी कष्ट कथा रो-रोकर सुनाने लगा और कहा- “जब आप भगवान से मिलें तो मेरे गुजारे का प्रबंध उनसे करा दें।”
नारद उदास मन आगे बढ़े तो एक धनी से उनकी भेंट हो गई।
उसने भी नारद जी को पहचाना तो उसने खिन्न होकर कहा- “मुझे भगवान ने किस जंजाल में फँसा दिया। थोड़ा मिलता तो मैं शांति से रहता और कुछ भजन-पूजन कर पाता, पर इतनी दौलत तो सँभाले नहीं सँभलती। ईश्वर से मेरी प्रार्थना करें कि इस जंजाल को घटा दें।”
यह विषमता देवर्षि को अखरी। वे आगे चल ही रहे थे कि साधुओं की एक जमात से भेंट हो गई। जमात वाले उन्हें चारों ओर से घेरकर खड़े हो गए और बोले-“स्वर्ग में तुम अकेले ही मौज करते रहते हो। हम सबके लिए भी वैसे ही राजसी ठाठ जुटाओ, नहीं तो नारद बाबा चिमटे मार-मार कर तुम्हारा भुस बना देंगे। “घबराए नारद ने उनकी माँगी वस्तुएँ मँगा दी और जान छुड़ा कर भगवान के पास वापस लौट गए। जो कुछ देखा वही उनके लिए बहुत था और देखने की उन्हें इच्छा ही न रही।
भगवान ने नारद से उस यात्रा का वृतांत पूछा तो देवर्षि ने तीनों घटनाएँ कह सुनाई। नारायण हँसे और बोले- “देवर्षि, मैं कर्म के अनुसार ही किसी को कुछ दे सकने में विवश हूँ। जिसकी कर्मठतासमाप्त हो चुकी उसे मैं कहाँ से दूँ। तुम अगली बार जाओ तो उस दीन-हीन वृद्ध से कहना कि दरिद्रता के विरुद्ध लड़े और सुविधा के साधन जुटाने का प्रयत्न करे तभी उसे दैवी सहायता मिल सकेगी। इसी प्रकार उस धनी से कहना कि यह दौलत उसे दूसरों की सहायता के लिए दी गई है। यदि वह संग्रही बना रहा तो जंजाल ही नहीं, आगे चलकर वह विपत्ति भी बन जाएगी।
“नारद जी ने पूछा- ” और उस साधु मंडली से क्या कहूँ?” भगवान के नेत्र चढ़ गए और बोले- “उन दुष्टों से कहना कि त्यागी और परमार्थी का वेष बनाकर आलस्य और स्वार्थपरता की प्रवंचना इतनी असह्य है कि उन्हें नरक के निकृष्टतम स्थान में अनंत काल तक पड़ना पड़ेगा।”
नारी का आभूषण
मगध की सौंदर्य साम्राज्ञी वासवदत्ता उपवन विहार के लिए निकली। उसका साज शृंगार उस राजवधू की तरह था जो पहली बार ससुराल जाती है।
एकाएक दृष्टि उपवन-ताल के किनारे स्फटिक शिला पर बैठे तरुण संन्यासी उपगुप्त पर गई। चीवरधारी ने बाह्य सौंदर्य को अंतर्निष्ठ कर लिया था और उस आनंद में कुछ ऐसा निमग्न हो गया कि उसे बाह्य जगत की कोई सुध न रही थी। हवा में पायल की स्वर झंकृति और सुगंध की लहरें पैदा करतीवा सवदत्ता समीप जा खड़ी हुई। भिक्षु ने नेत्र खोले। वासवदत्ता ने चपल-भाव से पूछा- “महामहिम ! बताएँगे नारी का सर्वश्रेष्ठ आभूषण क्या है ?”
“जो उसके सौंदर्य को सहज रूप से बढ़ा दे”- तपस्वी ने उत्तर दिया। सहज का क्या अर्थ है? चंचल नेत्रों को उपगुप्त पर डालती वासवदत्ता ने फिर प्रश्न दोहराया।उपगुप्त ने सौम्य मुस्कान के साथ कहा – “देवि ! आत्मा जिन गुणों को बिना किसी बाह्य इच्छा, आकर्षण, भय या छल के अभिव्यक्त करे, उसे ही सहज भाव कहते हैं। सौंदर्य को जो बिना किसी कृत्रिम साधन के बढ़ाता हो, नारी का वह भाव ही सच्चा आभूषण है।” किंतु वह भी वासवदत्ता समझ न सकी। उसने कहा- “मैं स्पष्ट जानना चाहती हूँ, यों पहेलियों में आप मुझे न उलझाएँ। “उपगुप्त अब कुछ गंभीर हो गए और बोले- ” भद्रे ! यदि आप और स्पष्ट जानना चाहती हैं तो इन कृत्रिम सौंदर्य परिधान और आभूषणों को उतार फेंकिए।”
पैरों की थिरकन के साथ वासवदत्ता ने एक-एक आभूषण उतार दिए। संन्यासी निर्निमेष वह क्रीड़ा देख रहा था, निश्छल, मौन, विचार- मग्न वासवदत्ता ने अब परिधान उतारने भी प्रारंभ कर दिए। साड़ी, चुनरी, लहँगा और कंचुकि सब उतर गए। शुभ्र निर्वसन देह के अतिरिक्त शरीर पर कोई पट-परिधान शेष नहीं रहा। तपस्वी ने कहा- “देवि ! किंचित मेरी ओर देखिए।” किंतु इस बार वासवदत्ता लज्जा से आविर्भूत ऊपर को सिर न उठा सकी। तपस्वी ने कहा- “देवि ! यही लज्जा ही नारी का सच्चा आभूषण है।”
और जब तक उसने वस्त्राभूषण पुनः धारण किए उपगुप्त वहाँ से जा चुके थे।