प्रेरणादायक हिंदी कहानी भगवान का प्यार Hindi Kahani bhutiya kahani Kahani

रोचक और प्रेरणादायक हिंदी कहानी संग्रह Hindi Kahani

परमात्मा का पल्ला मत छोड़ो

एक संत निश्चित दिन अपनी गुफा से बाहर निकलते और जिससे उनका स्पर्श हो जाता वही रोगमुक्त हो जाता था। एक भक्त यह सुनकर वहाँ पहुँचा और जिस समय महात्मा गुफा से निकल कर आरोग्यता दान करते हुए गुफा में घुसने को थे तभी भक्त ने उनकी चादर का कोना पकड़ लिया और बोला कि आपने सबका रोग दूर किया, मेरे भी मन का रोग दूर कीजिए।

महात्मा हड़बड़ा कर कहने लगे- “मुझे जल्दी छोड़ो। वह ईश्वर देख रहा है कि तुम उसका पल्ला छोड़कर दूसरे का पल्ला पकड़ना चाहते हो। मुक्तिदाता वही है उसी का पल्ला पकड़।” महात्मा चादर छुड़ाकर गुफा में घुस गए और ईश्वर भक्ति में लीन हो गए।

आत्मविजय

एक था कुत्ता, सड़ गए थे कान जिसके, कई दरवाजों में घूमा, जहाँ भी गया वहाँ दुतकारा गया, वह दिनभर घूमा रोटी के लिए, कौर मिले दो; मार दो; मार और फटकार का कोई ठिकाना नहीं था। इंद्रियों की लिप्सा में दर-दर भटकता हुआ अज्ञानी व्यक्ति भी इसी प्रकार सर्वत्र तिरस्कार पाता है।

एक था हाथी, जंगल में मस्त घूमा करता था, न कोई अभाव था, न दुःख। एक दिन एक हथिनी की आसक्ति में आ गया। वासना-भूत हाथी को हथिनी उधर ले गई जहाँ शिकारी जाल बिछाए बैठे थे। हाथी पकड़ लिया गया। न रही मस्ती, न रहा वह मुक्त आनंद। वासना में फँसा अज्ञानी मनुष्य भी उसी प्रकार अपने शाश्वत आनंद से भटक कर दुःखों के जाल में जा गिरता है।

एक था कछुआ, कुछ शिकारियों ने उसे दूर से देखा और आक्रमण के लिए दौड़े। कछुआ समझदार था, ज्ञानी था, अंग-प्रत्यंगों को समेट कर खाल के भीतर छिप रहा। शिकारी इधर-उधर ढूँढ़ते ही रहे। कछुए की तरह जो ज्ञानी-जन बाहरी मोह और आकर्षणों से बचकर आत्मा का अनुसरण करते हैं, उसकी सब प्रकार रक्षा होती है। पिता ने कोई उत्तर नहीं दिया। दूसरे दिन पिता ने कहा- “बेटे, आज घर के सामने बाग लगाएँगे।” पिता-पुत्र दोनों उसमें जुट गए, पर बेटा असमंजस में था कि पिता जी ने उत्तर क्यों नहीं दिया।

एक फल नीम का बोया गया दूसरा आम का। दो फुट के फासले पर दोनों पेड़ बढ़ने लगे। पेड़ बड़े हुए, कुछ दिन में फल आए, एक का कड़वा दूसरे का मीठा। पिता ने कहा – “बेटा, एक ही धरती के दो बेटों ने एक ही स्थान पर समान सुविधाएँ पाईं पर यह विषमता कहाँ से आ गई।” बेटे ने समझा कि यह प्रकृति-गुण है कि जो जैसा चाहता है अपनी सृष्टि बना लेता है, परमात्मा उसके लिए दोषी नहीं।

निर्भीकता

मूसा किसी गाँव की यात्रा कर रहे थे। एक स्थान पर उन्हें झोपड़ी में कुछ आवाज सी सुनाई दी। रुककर देखा तो साँप फुफकार रहा था। मूसा भय से काँपने लगा, सांस जोर-जोर से चलने लगी, दम फूलने लगा, बुद्धि ने जवाब दे दिया, अब क्या करना चाहिए।

तभी एक आवाज आई- “मूसा ! डरो मत, उठो, साहस करो और साँप को जकड़ कर पकड़ लो।” मूसा ने थोड़ा साहस बाँधा, पाँव आगे बढ़ाया और साँप को पकड़ लिया। जब मूसा ने साँप को पकड़ा तो वह साँप सोने का डंडा बन गया। निष्कर्ष यह है कि भय का साहस से, धैर्य से सामना करना ही सफलता है।

पात्रता की परीक्षा

एक महात्मा के पास तीन मित्र गुरु-दीक्षा लेने गए। तीनों ने बड़े नम्र भाव से प्रणाम करके अपनी जिज्ञासा प्रकट की। महात्मा ने शिष्य बनाने से पूर्व पात्रता की परीक्षा कर लेने के मंतव्य से पूछा- “बताओ कान और आँख में कितना अंतर है ?”

एक ने उत्तर दिया- “केवल पाँच अंगुल का, भगवन्!” महात्मा ने उसे एक ओर खड़ा करके दूसरे से उत्तर के लिए कहा। दूसरे ने उत्तर दिया- “महाराज आँख देखती है और कान सुनते हैं, इसलिए किसी बात की प्रामाणिकता के विषय में आँख का महत्त्व अधिक है।” महात्मा ने उसको भी एक ओर खड़ा करके तीसरे से उत्तर देने के लिए कहा। तीसरे ने निवेदन किया- “भगवन्! कान का महत्त्व आँख से अधिक है। आँख केवल लौकिक एवं दृश्यमान जगत को ही देख पाती है, किंतु कान को पारलौकिक एवं पारमार्थिक विषय का पान करने का सौभाग्य प्राप्त है।” महात्मा ने तीसरे को अपने पास रोक लिया। पहले दोनों को कर्म एवं उपासना का उपदेश देकर अपनी विचारणा शक्ति बढ़ाने के लिए विदा कर दिया। क्योंकि उनके सोचने की सीमा ब्रह्म तत्त्व की परिधि में अभी प्रवेश कर सकने योग्य सूक्ष्म बनी न थी।

शबरी की महत्ता

शबरी यद्यपि जाति की भीलनी थी, किंतु उसके हृदय में भगवान की सच्ची भक्ति भरी हुई थी। बाहर से वह जितनी गंदी दीख पड़ती थी, अंदर से उसका अंतःकरण उतना ही पवित्र और स्वच्छ था। वह जो कुछ करती भगवान के नाम पर करती, भगवान के दर्शनों की उसे बड़ी लालसा थी और उसे विश्वास भी था कि एक दिन उसे भगवान के दर्शन अवश्य होंगे। शबरी जहाँ रहती थी उस वन में अनेक ऋषियों के आश्रम थे। उसकी उन ऋषियों की सेवा करने और उनसे भगवान की कथा सुनने की बड़ी इच्छा रहती थी। अनेक ऋषियों ने उसे नीच जाति की होने के कारण कथा सुनाना स्वीकार नहीं किया और श्वान की भाँति दुत्कार दिया। किंतु इससे उसके हृदय में न कोई क्षोभ उत्पन्न हुआ और न निराशा। उसने ऋषियों की सेवा करने की एक युक्ति निकाल ली।

वह प्रतिदिन ऋषियों के आश्रम से सरिता तक का पथ बुहारकर कुश-कंटकों से रहित कर देती और उनके उपयोग के लिए जंगल से लकड़ियाँ काटकर आश्रम के सामने रख देती। शबरी का यह क्रम महीनों चलता रहा, किंतु ऋषि को यह पता न चला कि उनकी यह परोक्ष सेवा करने वाला है कौन ? इस गोपनीयता का कारण यह था कि शबरी आधी रात रहे ही जाकर अपना काम पूरा कर आया करती थी। जब वह कार्यक्रम बहुत समय तक अविरल रूप से चलता रहा तो ऋषियों को अपने परोक्ष सेवक का पता लगाने की अतीव जिज्ञासा हो उठी। निदान उन्होंने एक रात जागकर पता लगा ही लिया कि यह वही भीलनी है जिसे अनेक बार दुत्कार कर द्वार से भगाया जा चुका था।

तपस्वियों ने अंत्यज महिला की सेवा स्वीकार करने में परंपराओं पर आघात होते देखा और उसे उनके धर्म-कर्मों में किसी प्रकार भाग न लेने के लिए धमकाने लगे। मातंग ऋषि से यह न देखा गया। वे शबरी को अपनी कुटी के समीप ठहराने के लिए ले गए। भगवान राम जब वनवास गए तो उन्होंने मातंग ऋषि को सर्वोपरि मानकर उन्हें सबसे पहले छाती से लगाया और शबरी के झूठे बेर प्रेमपूर्वक चख-चखकर खाए।

पक्षियों की रक्षा

कौरवों और पांडवों की सेनाएँ आमने-सामने आ गईं। शंख बजने लगे, घोड़े खुरों से जमीन खूँदने और हाथी चिंघाड़ने लगे। कुरुक्षेत्र के समरांगण में सर्वनाश की तैयारी पूरी हो चुकी थी। ठीक तभी एक टिटहरी का आर्तनाद गूंज उठा।

दोनों शिविरों के मध्य एक छोटी सी टेकरी थी, उसी की खोह में उसका घोंसला था। उसकी आँखें अपने बच्चों की ओर लगी थीं और कान धनुषों की टंकार पर। उसे चिंता स्व-जीवन की नहीं, अपने बच्चों की थी और निस्सहाय पुकार के रूप में आकुल मातृत्व सारे घोंसले में बिखर गया था। कृष्ण के कानों तक यह पुकार पहुँची। असंख्य वीरों की बलि और युद्ध के भयंकर कोलाहल के बीच भी जिनकी बाँसुरी के स्वर कभी विचलित नहीं हुए थे, उन्हीं कृष्ण को इस टिटहरी के स्वर ने झकझोर डाला। वे दौड़े गए। एक पत्थर उठाकर घोंसले के द्वार पर सहेज दिया और वापस आकर अपना स्थान ग्रहण करते हुए सेनापति से कहा- “महावीर भीम, अब तुम युद्ध का बिगुल बजा सकते हो।”

भगवान का प्यार

शाम हुई मनसुख घर लौटे। आज भगवान कृष्ण गौएँ चराने नहीं गए थे। उनका जन्म दिवसोत्सव था। घर में पूजा थी, यशोदा ने उन्हें घर में ही रोक लिया था। गोप-बालकों ने पूछा- “मनसुख तुम तो अनन्य भक्त और सखा हो गोपाल के, फिर आज कृष्ण ने तुम्हें प्रसाद के लिए नहीं पूछा। तुम तो कहते थे गोपाल मेरे बिना अन्न का ग्रास भी नहीं डालते।”

“हाँ-हाँ ग्वालो! ऐसा ही है, तुम्हें विश्वास कहाँ होगा। कन्हाई तो आज भी मेरे पास आए थे। आज तो उन्होंने मुझे अपने हाथ से ही खिलाया था।”

“यह झूठ है” यह कहकर गोप-बालक कृष्ण को पकड़ लाए और कहने लगे- “लो मनसुख ! अब तो कृष्ण सामने खड़े हैं, पूछ ले इन्होंने तो आज देहलीज के बाहर पाँव तक नहीं रखा।”

कृष्ण ने गोप-बालकों का समर्थन किया और कहा- “हाँ- हाँ मनसुख ! तुम्हें भ्रम हुआ होगा मैं तो आज बाहर निकला तक नहीं।”मनसुख ने मुसकराते हुए कहा- ” धन्य हो नटवर ! तुम्हारी लीलाएँ अगाध हैं, पर क्या आप बता सकते हैं कि यदि आज आप मेरे पास नहीं आए तो आपका यह पीतांबर मेरे पास कहाँ से आ गया। देख लो न अभी भी मिष्टान्न का कुछ अंश इसमें बँधा हुआ है।”

ग्वालों ने पीतांबर खोलकर देखा – वही भोग, वही मिष्टान्न जो पूजा गृह में था, पीतांबर में बँधा था। मनसुख को वह कौन देने गया, किसको पता था ?