सफल व्यक्ति कैसे बने
how to become a successful person
यदि मनुष्य में आत्मश्रद्धा हो तो उसे सफलता प्राप्त करने में सुगमता होती है, किंतु आत्मश्रद्धा के साथ-साथ मनुष्य को जीवन में सफल होने के लिए कुछ अन्य विशेषताओं की आवश्यकता भी होती है। किसी देश के राजा को अपनी प्रजा के सुख-दुख की, राजकोष की, शत्रुओं से सुरक्षा की, उदंड अपराधियों के नियंत्रण की, मत्रिमंडल के संगठन आदि की अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है और प्रत्येक गुत्थी को सही तरीके से सुलझाना पड़ता है। कोई मूर्ख राजा उचित हल न खोज सके और उलटी सीधी गतिविधियाँ अपनाए तो प्रजा में अशांति, शासन में असंतोष तथा व्यवस्था में गतिरोध उत्पन्न हो जाएगा। ऐसा राजा स्वयं भी नष्ट होता है और अपने राज्य भर में विपत्ति की विभीषिकाएँ खड़ी कर देता है। जीवन को किसी बड़े राजकाज का संचालन करने से ही उपमा दी जा सकती है। राज्य बड़ा होता है जीवन छोटा, पर गुत्थियाँ दोनों की एक सी रहती हैं। हाथी बड़ा है मच्छर छोटा पर दोनों को ही अपने-अपने निर्वाह की बात समान रूप से सोचनी पड़ती है और उनका हल खोजने के लिए समान रूप से दौड़-धूप करनी होती है। जीवन के बाह्य उत्तरदायित्व छोटे हों या बड़े हर मनुष्य को एक नियत परिधि में अपनी कठिनाइयों का हल आप खोजना पड़ता है और अपना रास्ता स्वयं साफ करना होता है। इस संसार में एक भी व्यक्ति ऐसा पैदा नहीं हुआ जिसे पूर्ण निश्चिंतता के साथ सरल और शांतिपूर्ण जीवन यापन करने की सुविधा मिली हो । यदि ऐसा होता तो मानवीय बुद्धि का विकास ही संभव न होता । चाकू की धार तभी तेज होती है, जब पत्थर पर उसे घिसा जाता है, निष्क्रिय पड़े रहने पर तो उस पर जंग ही चढ़ती है। कठिनाइयों और समस्याओं से रहित जीवन निर्जीव और आनंद रहित ही बनेगा, उसमें जड़ता, अनुत्साह और अवसाद ही घिरा रहेगा। घिसने और टकराने से शक्ति उत्पन्न होती है, यह वैज्ञानिक नियम है। ईश्वर अपने प्रिय पुत्र जीव को शक्तिवान, प्रगतिशील, विकासोन्मुख, चतुर, साहसी और पराक्रमी बनाना चाहता है, इसीलिए उसने समस्याओं और कठिनाइयों का एक बड़ा अंबार प्रत्येक मनुष्य के सामने खड़ा किया हुआ है ।
बिल्ली अपने छोटे बच्चों को चूहे का शिकार करना स्वयं सिखाती है। पकड़े हुए घायल चूहे को वह बच्चों के सामने छोड़ती है, बच्चे उस पर आक्रमण करते हैं, मारते और खाते हैं। इस प्रकार उन्हें शिकार करने का अनुभव हो जाता है । परमात्मा बिल्ली की तरह मनुष्य स्वरूप बच्चों को उलझी समस्याओं और विवेक की शिक्षा का साधन प्रस्तुत करता है । यह घायल चूहे तो अधमरे पहले से ही थे। चूहे मारने में कोई कठिनाई नहीं है। उन्हें तो बिल्ली स्वयं ही मार कर दे सकती थी, पर बच्चों को शिकार खेलना सिखाना तो बड़ा प्रश्न था । इसके बिना बच्चे अपने पैरों पर खड़े ही न हो पाते । ईश्वर आसानी से हमारी समस्याएँ हल कर सकता है, वह करता भी है, पर हमें भी तो अपनी चेतना का विकास करना सीखना है । इसलिए अधमरे चूहे की तरह गुत्थियाँ भी सामने आती ही रहती हैं। एक के बाद दूसरी का ताँता लगा ही रहता है ।
कल्पना किसी को भी नहीं करनी चाहिए वरन् यह सोचना चाहिए कि आए दिन उपस्थित होने वाली समस्याओं के सुलझाने कां सही तरीका क्या है, उसे जाने। पैरों में जूते पहन लेने पर रास्ते में बिखरे हुए काँटों से सहज ही बचाव हो जाता है। अपने पास उलझनों को सुलझाने का यदि सही दृष्टिकोण मौजूद हो तो कठिन और भयंकर दीखने वाली समस्याएँ भी बात की बात में सुलझती चली जाती हैं । आमतौर से यह सोचा जाता है कि जैसा हम सोचते हैं,
जैसा हम चाहते हैं, उसी के अनुरूप परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाएँ, उसी के अनुरूप दूसरे व्यक्ति आचरण करने लगें । अपनी हर सही गलत आकांक्षाओं को हम पूर्ण हुआ देखना चाहते हैं । मानो सामने जो कुछ है वह सब गीली मिट्टी मात्र है । उसका जो कुछ बनाना चाहते हैं वही तुरंत बनकर तैयार हो जाएगा और जैसे चलाना चाहते हैं, वैसे ही चलने लगेगा । यह आकांक्षा भी इसी प्रकार असफल रहने वाली है जैसी कठिनाइयों से पूर्ण सुरक्षित रहने की कामना । जिस प्रकार कठिनाइयों से निपटने के लिए कटिबद्ध रहना आवश्यक है, उसी प्रकार यह भी आवश्यक है कि यह भली प्रकार जान लिया जाए कि परिस्थितियाँ अपने अनुकूल बनें यह सोचते रहने की अपेक्षा यह सोचना उचित है कि हम परिस्थितियों के अनुकूल ही अपना स्वभाव बदल लें और जैसा हम चाहते हैं वैसे ही चलें, यह सोचने की अपेक्षा यह सोचना अधिक युक्ति संगत है कि इस बहुरंगी दुनिया से मिल कर चलने और जैसा कुछ यहाँ है उससे काम चलाने के लायक लचक अपने अंदर उत्पन्न करें । प्रतिकूल को अनुकूल बनानें के लिए अपने भीतर कुछ विशेषताएँ होनी चाहिए। लुहार अपनी भट्टी में लोहे के टूटे- फूटे टुकड़ों को डालकर नरम करता है और जब वे नरम हो जाते हैं तब उनकी मनचाही आकार-प्रकार की वस्तु बना लेता है। यदि बिना नरम किए वह उन्हें परिवर्तित करना चाहे तो कर सकेगा ?
सफलता के दो सूत्र :
जिंदगी जीने की कला में प्रधानतया दो ही शिक्षण होते हैं। दूसरे की प्रतिकूलता को अनुकूलता में परिवर्तित करने की सामर्थ्य और उस प्रतिकूलता को हँसते-खेलते सहन कर लेने की क्षमता। ये दो गुण जिसमें होंगे वह जीवन संग्राम में कभी असफल नहीं होगा । दुख मनुष्य के हित के लिए परमात्मा के वरदान स्वरूप आते हैं। उनसे घबड़ाना, दुख के समय दुखी, चिंतित एवं परेशान होना मौत के समान है। दुखों से निराश हो जाने पर मानवीय विकास का पथ रुक जाता है। जीवन कठिनाइयों से भरी एक चुनौती है, जिसका धैर्य, साहस और निष्ठापूर्वक सामना करना ही चाहिए। कठिनाई के साथ साहस और पुरुषार्थ भीआते हैं। अभी एक कठिनाई से छूटे नहीं कि दूसरी आ धमकी । स्वास्थ्य ठीक हुआ नहीं कि व्यापार में घाटा आ गया । कर्ज पूरा किए दो दिन ही हुए थे कि किसी परिजन की मृत्यु हो गई। पानी की लहरों के समान एक पर एक मुसीबतें दौड़ी चली आती हैं। ऐसे समय पर लोगों के हाथ- पाँव ठंडे पड़ जाते हैं। बुद्धि काम नहीं देती । पाँव लड़खड़ा जाते हैं । आशंका होती है कि फिर कोई नई मुसीबत न खड़ी हो जाए, इस दुश्चिंता के मारे अधमरे हो जाते हैं। किंतु जो अटल प्रारब्ध है उससे भय क्यों ? आने वाली कठिनाई के प्रति कायरता कैसी ?