गधों का सत्कार
किसी समय एक जंगल में गधे ही गधे रहते थे। पूरी आजादी से रहते, भरपेट खाते-पीते और मौज करते। एक लोमड़ी को मजाक सूझा। उसने मुँह लटकाकर गधों से कहा- “मैं चिंता से मरी जा रही हूँ और तुम इस तरह मौज कर रहे हो। पता नहीं कितना बड़ा संकट सिर पर आ पहुँचा है।”
गधों ने कहा- “दीदी, भला क्या हुआ, बात तो बताओ।” लोमड़ी ने कहा- “मैं अपने कानों सुनकर और आँखों देखकर आई हूँ। मछलियों ने एक सेना बना ली है और वे अब तुम्हारे ऊपर चढ़ाई करने ही वाली हैं। उनके सामने तुम्हारा ठहर सकना कैसे संभव होगा ? “गधे असमंजस में पड़ गए। उनने सोचा व्यर्थ जान गँवाने से क्या लाभ। चलो कहीं अन्यत्र चलो। जंगल छोड़कर वे गाँव की ओर चल पड़े। इस प्रकार घबराए हुए गधों को देखकर गाँव के धोबी ने उनका खूब सत्कार किया। अपने छप्पर में आश्रय दिया और गले में रस्सी डालकर खूँटे में बाँधते हुए कहा- “डरने की जरा भी जरूरत नहीं। मछलियों से मैं भुगत लूँगा। तुम मेरे बाड़े में निर्भयतापूर्वक रहो। केवल मेरा थोड़ा सा बोझ ढोना पड़ा करेगा। “गधों की घबराहट तो दूर हुई पर उसकी कीमत महँगी चुकानी पड़ी।
नासमझ को समझ दो, वरदान नहीं
एक राजा वन भ्रमण के लिए गया। रास्ता भूल जाने पर भूख- प्यास से पीड़ित वह एक वनवासी की झोंपड़ी पर पहुँचा। वहाँ उसे आतिथ्य मिला तो जान बची।
चलते समय राजा ने उस वनवासी से कहा- “हम इस राज्य के शासक हैं। तुम्हारी सज्जनता से प्रभावित होकर अमुक नगर का चंदन बाग तुम्हें प्रदान करते हैं। उसके द्वारा जीवन आनंदमय बीतेगा।” वनवासी उस परवाने को लेकर नगर अधिकारी के पास गया और बहुमूल्य चंदन का उपवन उसे प्राप्त हो गया। चंदन का क्या महत्त्व है और उससे किस प्रकार लाभ उठाया जा सकता है, उसकी जानकारी न होने से वनवासी चंदन के वृक्ष काटकर उनका कोयला बनाकर शहर में बेचने लगा। इस प्रकार किसी तरह उसके गुजारे की व्यवस्था चलने लगी।
धीरे-धीरे सभी वृक्ष समाप्त हो गए। एक अंतिम पेड़ बचा। वर्षा होने के कारण कोयला न बन सका तो उसने लकड़ी बेचने का निश्चय किया। लकड़ी का गट्ठा लेकर जब बाजार में पहुँचा तो सुगंध से प्रभावित लोगों ने उसका भारी मूल्य चुकाया। आश्चर्यचकित वनवासी ने इसका कारण पूछा तो लोगों ने कहा- “यह चंदन काष्ठ है। बहुत मूल्यवान है। यदि तुम्हारे पास ऐसी ही और लकड़ी हो तो उसका प्रचुर मूल्य प्राप्त कर सकते हो।”
वनवासी अपनी नासमझी पर पश्चात्ताप करने लगा कि उसने इतना बड़ा बहुमूल्य चंदन वन कौड़ी मोल कोयले बनाकर बेच दिया। पछताते हुए नासमझ को सांत्वना देते हुए एक विचारशील व्यक्ति ने कहा- “मित्र, पछताओ मत, यह सारी दुनिया तुम्हारी ही तरह नासमझ है। जीवन का एक-एक क्षण बहुमूल्य है पर लोग उसे वासना और तृष्णाओं के बदले कौड़ी मोल में गँवाते हैं। तुम्हारे पास जो एक वृक्ष बचा है उसी का सदुपयोग कर लो तो कम नहीं। बहुत गँवाकर भी अंत में यदि कोई मनुष्य सँभल जाता है तो वह भी बुद्धिमान ही माना जाता है।”
पुरुषार्थ की विजय
घर के सामने कई पीढ़ियों से खड़े पर्वत ने चुनौती दी “है कोई माई का लाल जो मुझे अपने स्थान से हटा दे।” पर्वत की यह गर्वोक्ति किसी ने सुनी, किसी ने नहीं सुनी। किसी ने सुनकर भी अनसुनी कर दी, पर सामने वाले मकान में बैठे हुए एक बूढ़े किसान ने सोचा-“यदि पहाड़ इस स्थान से हट जाता तो कई बीघे जमीन खेती के लिए निकल आती, बालक-बच्चों का उदर-पोषण होता।”दाढ़ी पर हाथ फेरा, घर वालों को आवाज लगाई। पिता की आवाज सुनकर सब लड़के और पोते घर से बाहर निकल आए बोले- “बाबा! कहिए क्या आज्ञा है।” वृद्ध ने संकेत करते हुए कहा- “बच्चो, वह देखो पहाड़ दिखाई देता है न, कितनी जमीन घेरे खड़ा है, हम लोग प्रयत्न करें तो उसे अपने स्थान से हटा सकते हैं। एक-दो, चार दिन नहीं जब तक वह हट न जाए चैन नहीं लें तो निश्चित ही पहाड़ को खोदकर समतल भूमि निकाल सकते हैं।”
वृद्ध की उत्साह भरी बातें बच्चों को भा गईं। उनने कहा- “हाँ, हाँ, बाबा हटा क्यों नहीं सकते?” “तो फिर विलंब न करो, चलो अभी जुट जाओ।” वृद्ध ने विजय की कामना करते हुए बच्चों से कहा। फावड़ा-कुदाली लेकर सब जुट गए पर समस्या आ खड़ी हुई इतना बड़ा पहाड़ खोदकर डाला कहाँ जाए। वृद्ध ने बच्चों को निरुत्साहित होते देखा तो फिर दौड़ा-दौड़ा आया और बोला-” थोड़ा चलना ही तो पड़ेगा पर समुद्र में तो हम ऐसे-ऐसे हजारों पहाड़ फेंक सकते हैं।” बच्चे अब दुगने उत्साह से जुट गए और पहाड़ को खोदकर समुद्र में फेंक डाला।
सार्थक श्रद्धा
बाजिश्रवा के शिष्यों धर्मद और विराध में विवाद छिड़ गया। दोनों अपने-अपने को अधिक श्रद्धावान सिद्ध करना चाहते थे। दोनों गुरु के समीप गए और निर्णय देने का आग्रह किया। गुरु ने कहा- “अपनी-अपनी श्रद्धा की व्याख्या करो तब निर्णय देंगे।” धर्मद बोला- “देव ! आश्रम जीवन में आपकी प्रत्येक बात मानी। उचित, अनुचित का भी ध्यान नहीं किया। आपकी किसी भी आज्ञा को तर्क या विवेक से परखने का प्रयत्न नहीं किया। क्या इससे बढ़कर भी कोई श्रद्धा हो सकती है?”
गुरुदेव मुसकराए, अब उनने विराध को संकेत किया। विराध बोला- “भगवन् ! मुझे ज्ञान की प्रबल आकांक्षा है, अतएव आप पर श्रद्धा भी अगाध है, पर साथ ही यह भी परखना आवश्यक समझता हूँ कि जो कुछ कहा या बताया जाता है, वह सत्य से परे तो नहीं है। सत्य का मूल्य अधिक है, इसलिए सत्य को पाने के लिए सर्वस्व छोड़ने के लिए तैयार हूँ।”
गुरु ने कहा- “धर्मद! सत्य को परख कर धारण की जाने वाली श्रद्धा ही श्रेष्ठ है।”
निर्विकल्प समाधि
निर्विकल्प समाधि की साधना में जब सफलता न मिली तो महर्षि उद्दालक ने सोचा- “असफल होकर जीना क्या ? निराहार रहकर मृत्यु का वरण करना चाहिए।” उन्होंने अन्न-त्याग कर मरण की साधना आरंभ कर दी।
जिस वट-वृक्ष के नीचे महर्षि का अनशन व्रत चल रहा था उसके कोटर में वीरुध नामक एक बूढ़ा तोता रहता था। उसने ऋषि को संतप्त दृष्टि से देखा और सजल नेत्रों से कहा- “वाचालता क्षमा ‘करें तो एक बात पूछें।” उद्दालक ने आँखें खोलीं और तोते से बोले- “कहो क्या कहना है।” वीरुध बोला- “शरीर तो मरणधर्मा है ही, उसकी मृत्यु-योजना करने में क्या पुरुषार्थ हुआ ? मृत्यु को अमस्ता में बदलने के लिए ऐसा ही दृढ़ निश्चय किया जाए और इतना ही त्याग किया जाए तो क्या अमृत की प्राप्ति न होगी ?”
उद्दालक देर तक सोचते रहे। शुक की वाणी उनके अंतस्तल तक प्रवेश करती गई। अनशन त्यागकर ऋषि ने अमृत की प्राप्ति के लिए प्रबल पुरुषार्थ आरंभ किया तो निर्विकल्प समाधि भी उनके समीप आ उपस्थित हुई।पूर्णता का अहंकार
बाप ने बेटे को भी मूर्तिकला ही सिखाई। दोनों हाट में जाते और अपनी-अपनी मूर्तियाँ बेचकर आते। बाप की मूर्ति डेढ़-दो रुपए की बिकती पर बेटे की मूर्तियों का मूल्य आठ-दस आने से अधिक न मिलता। हाट से लौटने पर बेटे को पास बिठाकर बाप उसकी मूर्तियों में रही हुई त्रुटियों को समझाता और अगले दिन उन्हें सुधारने के लिए समझाता ।
यह क्रम वर्षों चलता रहा। लड़का समझदार था, उसने पिता की बातें ध्यान से सुनीं और अपनी कला में सुधार करने का प्रयत्न करता रहा। कुछ समय बाद लड़के की मूर्तियाँ भी डेढ़ रुपए की बिकने लगीं। बाप अब भी उसी तरह समझाता और मूर्तियों में रहने वाले
दोषों की ओर उसका ध्यान खींचता। बेटे ने और भी अधिक ध्यान दिया तो कला भी अधिक निखरी। मूर्तियाँ पाँच-पाँच रुपए की बिकने लगीं। सुधार के लिए समझाने का क्रम बाप ने तब भी बंद न किया। एक दिन बेटे ने झुंझला कर कहा- “आप तो दोष निकालने की बात बंद ही नहीं करते। मेरी कला अब तो आप से भी अच्छी है, मुझे पाँच रुपए मिलते हैं जबकि आपको दो ही रुपए।”
बाप ने कहा- “पुत्र ! जब मैं तुम्हारी उम्र का था तब मुझे अपनी कला की पूर्णता का अहंकार हो गया और फिर सुधार की बात सोचना छोड़ दिया। तब से मेरी प्रगति रुक गई और दो रुपए से अधिक मूल्य की मूर्तियाँ न बना सका। मैं चाहता हूँ वह भूल तुम न करो। अपनी त्रुटियों को समझने और सुधारने का क्रम सदा जारी रखो ताकि बहुमूल्य मूर्ति। याँ बनाने वाले श्रेष्ठ कलाकारों की श्रेणी में पहुँच सको।”