अपना बल क्षीण न करो
समुद्र से जल भरकर वापस लौट रहे मरुत देवों को विंध्याचल शिखर ने बीच में ही रोक दिया। मरुत विंध्याचल के इस कृत्य पर बड़े कुपित हुए और युद्ध ठानने को तैयार हो गए। विंध्याचल ने बड़े सौम्य भाव से कहा- “महाभाग ! हम आपसे
युद्ध करना नहीं चाहते, हमारी तो एक ही अभिलाषा है कि आप यह जो जल लिए जा रहे हैं वह आपको जिस उदारता के साथ दिया गया है उसी उदारता के साथ आप भी इसे प्यासी धरती को पिलाते चलें तो कितना अच्छा हो।”
मरुतों को अपने अपमान की पड़ी थी सो वे शिखर से भिड़ ही तो गए पर जितना युद्ध किया उन्होंने उतना ही उनका बल क्षीण होता गया और धरती को अपने आप जल मिल गया। मनुष्य न चाहे तो भी ईश्वर अपना काम करा ही लेता है पर श्रद्धापूर्वक करने का तो आनंद ही कुछ और है।
शुभचिंतक की पहचान
एक राजा बड़ा सरल स्वभाव का था। उसके प्रशंसक और भक्त बनकर अनेकों लोग राजदरबार में पहुँचते और कुछ ठग कर ले जाते। एक से दूसरे को खबर लगी। चर्चा फैली। कुछ न कुछ लाभ उठाने की इच्छा से अगणित लोग राजा के प्रशंसक और शुभचिंतक बनकर दरबार में पहुँचने लगे। इस बढ़ती भीड़ को देखकर राजा स्वयं हैरान रहने लगा।
एक दिन राजा ने विचारा कि इतने लोग सच्चे शुभचिंतक नहीं हो सकते। इनमें से असली और नकली की परख करनी चाहिए। राजा ने पुरोहित से परामर्श करके दूसरे दिन बीमार बनने का बहाना बना लिया और घोषणा करा दी कि पाँच व्यक्तियों का रक्त मिलने से ही रोग की चिकित्सा हो सकेगी। रोग ऐसा भयंकर है कि इसके अतिरिक्त और कोई इलाज नहीं। सो जो राजा के शुभचिंतक हों अपना प्राणदान देने के लिए उपस्थित हों।
घोषणा सुनकर राज्यभर में हलचल मच गई। एक से एक बढ़ कर अपने को शुभचिंतक बताने वालों में से एक भी दरबार में न पहुँचा। राजा और उसके पुराहित दो ही बैठे हुए असली-नकली की परीक्षा के इस खेल पर विनोद करने लगे। पुरोहित ने कहा- “राजन् ! हमारी ही तरह परमात्मा भी अपने सच्चे-झूठे भक्तों की परीक्षा लेता रहता है। परमात्मा का प्रयोजन पूरा करने वाले सच्चे भक्त संसार में नहीं के बराबर दीखते हैं, जब कि उससे कुछ याचना करने वाले स्वार्थियों की भीड़ सदा ही उसके दरबार में लगी रहती है।”
सुजाता की खीर
सुजाता ने खीर दी, बुद्ध ने उसे ग्रहण कर परम संतोष का अनुभव किया। उस दिन उनकी जो समाधि लगी तो फिर सातवें दिन जाकर टूटी। जब वे उठे, उन्हें आत्म-साक्षात्कार हो चुका था।
नेरंजरा नदी के तट पर प्रसन्नमुख आसीन भगवान बुद्ध को देखने गई सुजाता बड़ी विस्मित हो रही थी कि यह सात दिन तक एक ही आसन पर कैसे बैठे रहे? तभी सामने से एक शव लिए जाते हुए कुछ व्यक्ति दिखाई दिए। उस शव को देखते ही भगवान बुद्ध हँसने लगे। सुजाता ने प्रश्न किया- “योगिराज ! कल तक तो आप शव
देखकर दुखी हो जाते थे, आज वह दुःख कहाँ चला गया ?” भगवान बुद्ध ने कहा- “बालिके! सुख-दुःख मनुष्य की कल्पना मात्र है। कल तक जड़-वस्तुओं में आसक्ति होने के कारण यह भय था कि कहीं वह न छूट जाए, वह न बिछुड़ जाए। यह भय ही दुःख का कारण था, आज मैंने जान लिया कि जो जड़ है, उसका तो गुण ही परिवर्तन है, पर जिसके लिए दुःख करते हैं, वह तो न परिवर्तनशील है न नाशवान। अब तू ही बता जो सनातन वस्तु पा ले, उसे नाशवान वस्तुओं का क्या दुःख। “सुजाता यह उत्तर सुनकर प्रसन्न हुई और स्वयं भी आत्म-चिंतन में लग गई।
प्रमादी की पहचान
एक दिन भिक्षु संगाम जी ने भगवान बुद्ध से पूछा- “भगवन् ! संसार के प्रमाद में पड़े हुए की क्या पहचान है ?” भगवान बुद्ध ने तत्काल कोई उत्तर न दिया और बातें करते रहे।
दूसरे दिन कुंडिया नगर की कोलिय पुत्री सुप्पवासा के यहाँ उनका भोज था। सुप्पवासा सात वर्ष तक गर्भ धारण करने का कष्ट भोग चुकी थी। भगवान बुद्ध की कृपा से ही उसे इस कष्ट से छुटकारा। मिला था, इसी प्रसन्नता में वह भिक्षु संघ को भोज दे रही थी। जब सुप्पवासा तथागत को भोजन करा रही थी, उसका पति नवजात शिशु को लिए पास ही खड़ा था। सात वर्ष तक गर्भ में रहने के कारण बालक जन्म से ही विकसित था। देखने में अति सुंदर। उसके हँसने और क्रीड़ा करने की गतिविधियाँ बड़ी मनमोहक थीं। बार-बार माँ की गोद में जाने के लिए मचल रहा था।
भगवान बुद्ध ने मुस्कराते हुए पूछा- “बेटी सुप्पवासा ! तुझे ऐसे-ऐसे पुत्र मिलें तो कितने और पुत्रों की कामना तू कर सकती है ?” सुप्पवासा ने कहा- “भगवन्! ऐसे सात पुत्र हों तो अच्छा है।” संगाम जी बगल में ही बैठे थे। कल तक जो प्रसव पीड़ा से बुरी तरह व्याकुल थी, आज फिर पुत्रों की कामना कर रही है, यह देखकर संगाम जी बड़े आश्चर्यचकित हुए। बद्ध ने हँसकर कहा- “संगाम जी चौंकिए मत, तुम्हारे कल के प्रश्न का उत्तर यही तो है।”
प्रगति के अवरोध
किसी ने कहा- “मनुष्य बड़ा, बहुत बड़ा हो सकता था, लेकिन दोष ही उसे देवत्व तक पहुँचने से लाचार कर देते हैं। सहज, प्रकृतिसिद्ध अहं पर विजय प्राप्त कर सकना, सत्पुरुषार्थ के एक कण से भी संभव है। किसी पराक्रम और वैभव को उद्घाटित करने के बदले लोग निंदा और ईर्ष्या की कोठरी में छिद्रान्वेषण और दोष-दर्शन के सहारे अनायास जा पहुँचते हैं, और तब परिणाम होता है कि हम अपना सब कुछ गँवा बैठते हैं।”
“दूसरे के दोषों में जिसका दर्शन हमें होता है, वह दूसरे का न होकर हमारे मन का गरल ही तो है, जिसे हम दूसरों पर सर्वथा लादने के असफल प्रयत्न में, मुक्तिकामी की भाँति अपने को निष्कलंक प्रमाणित करने का प्रयत्न करते हैं।”श्रोता का चेहरा प्रफुल्लित हो उठा-कमलदलों की तरह।
भाव की भूख
यहूदी अनपढ़ था और ग्रामीण भी। किसी ने उसे बता दिया कि जिस दिन प्रायश्चित पर्व हो उस दिन खूब अच्छा-अच्छा खाना चाहिए और मिले तो शराब भी पीनी चाहिए। सो जब अगला ‘प्रायश्चित पर्व’ आया तो एक दिन पूर्व ही उसने खूब डटकर खाया, शराब पी और नशे में धुत्त हो गया।
प्रातःकाल नींद टूटी तो भोले-भाले ग्रामीण यहूदी ने देखा कि उसका साथी तो प्रायश्चित पर्व की लगभग आधी प्रार्थना पूरी कर चुका है। उसे तो एक भी मंत्र याद न था, सो उसे अपने आप पर भारी ग्लानि हुई। कल शराब न पीकर मंत्र याद कर लेता तो कितना अच्छा होता, यह सोचकर वह बड़ा दुखी हुआ।
सबको प्रार्थना करते देखकर वह वहीं बैठ गया और वर्णमाला के अक्षरों का ही पाठ करता हुआ भावना करने लगा- “हे प्रभु! मुझे तो कोई मंत्र याद नहीं, इन अक्षरों को जोड़कर तुम्हीं मंत्र बना लेना। मैं तो तुम्हारा दास हूँ, पूजा के लिए नए भाव कहाँ से लाऊँ?” जब तक दूसरे लोग प्रार्थना करते रहे, वह ऐसे ही भगवान का ध्यान करता रहा। सायंकाल जब वे दोनों सामूहिक प्रार्थना में सम्मिलित हुए तो धर्मगुरु रबी ने उस ग्रामीण को भक्तों की अग्र-पंक्ति में रखा। यह देखकर उसके साथी ने आपत्ति की ” श्रीमान जी ! इसे तो मंत्र भी अच्छी तरह याद नहीं।”
“तो क्या हुआ” रबी ने आर्द्र कंठ से कहा- “इनके पास शब्द नहीं, भाव तो हैं। भगवान तो भाव का ही भूखा है, मंत्र तो हमारे-तुम्हारे लिए हैं।”