तेजस्वी ब्राह्मण
राजा जनक अपनी साज-सज्जा के साथ मिथिलापुरी के राजपथ पर होकर गुजर रहे थे। उनकी सुविधा के लिए सारा रास्ता प्रथिकों से शून्य बनाने में राज कर्मचारी लगे हुए थे। राजा की शोभायात्रा निकल जाने तक यात्रियों को अपने आवश्यक काम छोड़कर जहाँ-तहाँ रुका रहना पड़ रहा था।
अष्टावक्र को हटाया गया तो उनने हटने से इनकार कर दिया और कहा- “प्रजाजनों के आवश्यक कार्यों को रोककर अपनी सुविधा का प्रबंध करना राजा के लिए उचित नहीं। राजा अनीति करे तो ब्राह्मण का कर्त्तव्य है कि उसे रोके और समझावे। सो आप राज्याधिकारी गण राजा तक मेरा संदेश पहुँचावें और कहें कि अष्यवक्र ने अनुपयुक्त आदेश मानने से इनकार कर दिया है। वे हटेंगे नहीं और राजपथ पर ही चलेंगे।”
राज्याधिकारी कुपित हुए और अष्यवक्र को बंदी बनाकर राजा के पास ले पहुँचे। जनक ने सारा किस्सा सुना तो वे बहुत प्रभावित हुए और कहा- “इतने तेजस्वी ब्राह्मण जहाँ मौजूद हैं जो राजा तक को ताड़ना कर सकें, वह देश धन्य है। नीति और न्याय के पक्ष में आवाज उठाने वाले सत्पुरुषों के द्वारा ही जन-मानस की उत्कृष्टता स्थिर रह सकती है। ऐसे निर्भीक ब्राह्मण राष्ट्र की सच्ची संपत्ति हैं। उन्हें दंड नहीं सम्मान दिया जाना चाहिए।”
राजा जनक ने अष्यवक्र से क्षमा माँगी और कहा- “मूर्खतापूर्ण आज्ञा चाहे राजा की ही क्यों न हो तिरस्कार के योग्य है। आपकी निर्भीकता ने हमें अपनी गलती समझने और सुधारने का अवसर दिया। आज से आप राजगुरु रहेंगे और इसी निर्भीकता से सदा न्याय पक्ष का समर्थन करते रहने की कृपा करेंगे। “अष्टावक्र ने वह प्रार्थना जनहित की दृष्टि से स्वीकार कर ली।
अन्नपूर्णा रोटियाँ
‘ईसा अपने शिष्यों के साथ धर्म प्रचार के लिए जा रहे थे। रास्ते में रेगिस्तान पड़ा, दूर तक कोई गाँव दिखाई न देता था। भोजन की समस्या उत्पन्न हुई तो ईसा ने कहा- “जो कुछ तुम्हारे पास है उसे इकट्ठा कर लो और मिल-बाँटकर खाओ।”
शिष्यों के पास कुल मिलाकर पाँच रोटी और दो टुकड़े तरकारी निकली। गुरु ने उसे इकट्ठा किया और मंत्र बल से अन्नपूर्णा बना दिया। शिष्यों ने उसे भरपेट खाया और जो भूखे भिखारी उधर से निकले वे भी उसी से तृप्त हो गए।
सोलोमन नामक शिष्य ने पूछा- “गुरुवर ! इतनी कम सामग्री में इतने लोगों की तृप्ति का रहस्य क्या है ?”
ईसा ने कहा- “हे शिष्यो ! धर्मात्मा वह है जो खुद की नहीं सबकी बात सोचता है। अपनी बचत सबके काम आए, इस विचार से ही तुम्हारी पाँच रोटी अक्षय अन्नपूर्णा बन गईं। जो जोड़ते हैं वे ही भूखे रहेंगे। जिनने देना सीख लिया है उनके लिए तृप्ति के साधन आप ही आ जुटते हैं।”
भीष्म की पितृभक्ति
राजा शांतनु एक रूपवती निषाद कन्या सत्यवती से विवाह करना चाहते थे। उनने निषाद के आने पर प्रस्ताव रखा तो उसने उत्तर दिया कि यदि मेरी कन्या के गर्भ से उत्पन्न बालक को ही आप राज आदि देने का वचन दें तो मैं यह प्रस्ताव स्वीकार कर सकता हूँ। शांतनु असमंजस में पड़े, क्योंकि उनकी पहली रानी गंगा का पुत्र भीष्म मौजूद था और वही राज्याधिकारी भी था। शांतनु लौट आए पर वे मन ही मन दुखी रहने लगे।
भीष्म को जब यह पता चला तो उनने पिता को संतुष्ट करना अपना कर्त्तव्य समझा और निषाद के सामने जाकर प्रतिज्ञा की कि मैं अपना राज्याधिकार छोड़ता हूँ। सत्यवती का पुत्र ही राज्याधिकारी होगा। इतना ही नहीं मैं आजीवन अविवाहित ही रहूँगा ताकि मेरी संतान कहीं उस गद्दी पर अपना अधिकार न जमाने लगे। इस प्रतिज्ञा से निषाद संतुष्ट हुआ और उसने अपनी कन्या का विवाह शांतनु के साथ कर दिया। पिता के दोष को न देखकर उनकी प्रसन्नता के लिए स्वयं बड़ा त्याग करना भीष्म की आदर्श पितृभक्ति है।
पढ़ने के साथ गुनो भी
एक दुकानदार व्यवहारशास्त्र की पुस्तक पढ़ रहा था। उसी समय एक सीधे-साधे व्यक्ति ने आकर कुतूहलवश पूछा- “क्या पढ़ रहे हो भाई?” इस पर दुकानदार ने झुंझलाते हुए कहा- “तुम जैसे मूर्ख इस ग्रंथ को क्या समझ सकते हैं।” उस व्यक्ति ने हँसकर कहा- “मैं समझ गया, तुम ज्योतिष का कोई ग्रंथ पढ़ रहे हो, तभी तो समझ गए कि मैं मूर्ख हूँ।” दुकानदार ने कहा- “ज्योतिष नहीं, व्यवहार- शास्त्र की पुस्तक है।” उसने चुटकी ली” तभी तो तुम्हारा व्यवहार इतना सुंदर है।” दूसरों को अपमानित करने वालों को स्वयं अपमानित होना पड़ता है। पढ़ने का लाभ तभी है जब उसे व्यवहार में लाया जाए।
ईमानदार गरीब
सीलोन में एक जड़ी-बूटी बेचकर गुजारा करने वाला व्यक्ति रहता था। नाम था उसका महता शैसा। उसके घर की आर्थिक स्थिति बहुत ही खराब थी, कई कई दिन भूखा रहना पड़ता। उनकी माता चक्की पीसने की मजदूरी करती, बहिन फूल बेचती तब कहीं गुजारा हो पाता। ऐसी गरीबी में भी उनकी नीयत सावधान थी।
महता एक दिन एक बगीचे में जड़ी-बूटी खोद रहे थे कि उन्हें कई घड़े भरी हुई अशर्फियाँ गड़ी हुई दिखाई दीं। उनके मन में दूसरे की चीज पर जरा भी लालच न आया और मिट्टी से ज्यों का त्यों ढक कर बगीचे के मालिक के पास पहुँचे और उसे अशर्फियाँ गड़े होने की सूचना दी। बगीचे के मालिक लरोटा की आर्थिक स्थिति भी बहुत खराब हो चली थी। कर्जदार उसे तंग किया करते थे। इतना धन पाकर उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। सूचना देने वाले शैसा को उसने चार सौ अशर्फियाँ पुरस्कार में देनी चाही पर उसने उन्हें लेने से इनकार कर दिया और कहा- “इसमें पुरस्कार लेने जैसी कोई बात नहीं, मैंने तो अपना कर्त्तव्य मात्र पूरा किया है।”
बहुत दिन बाद लरोटा ने अपनी बहिन की शादी शैसा से कर दी और दहेज में कुछ धन देना चाहा। शैसा ने वह भी न लिया और अपने हाथ-पैर की मजदूरी करके दिन गुजारे।
माँ की सेवाएँ वेदज्ञान
चार्य महीधर आत्मज्ञान की इच्छा से घर छोड़कर विरक्त हो गए। उनकी माँ घर में कष्ट उठा रही है उन्हें इसका भी ध्यान न रहा। बहुत दिन तप साधना करने पर भी उन्हें पूर्णता प्राप्त न हुई तब वे घर लौट आए। बेटे को पाकर माँ के हर्ष का ठिकाना न रहा। उन्होंने कहा- “बेटा ! तूने दुखी का दुःख पहचान लिया तुझे पूर्णता प्राप्त होगी।” माँ के आशीर्वाद का ही फल था कि महीधर को वेदज्ञान प्राप्त हुआ। उन्होंने चारों वेदों का भाष्य करने का गौरव प्राप्त किया।
मैं-मैं ले डूबा
शिष्य अपने गुरु के दर्शन के लिए घर से चल पड़ा। रास्ते में नदी पड़ी। उसे अपने गुरु पर अपार श्रद्धा थी। नदी उसके मार्ग में बाधक बनना चाहती थी। पर जब वह नदी के किनारे पहुँचा तो अपने गुरु का नाम लेते हुए पानी पर कदम रखकर उस पार पहुँच गया।
नदी के दूसरे किनारे पर ही तो गुरु की कुटिया थी। गुरु ने अपने शिष्य को बहुत दिनों बाद देखा तो उनकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। शिष्य चरण स्पर्श के लिए नीचे झुका ही था कि उन्होंने बीच से ही उठाकर गले से लगा लिया। क्षणभर में ही उनका ध्यान भंग हुआ। उन्होंने सोचा- “मेरे नाम में यदि इतनी शक्ति है तो मैं बहुत ही महान और शक्तिशाली हूँ।” और अगले दिन नाव का सहारा न ले नदी पार करने के लिए ‘मैं, मैं, मैं’ कहकर जैसे ही वह कदम बढ़ाया कि पाँव रखते ही वह नदी में डूबने लगे और देखते ही देखते उनका प्राणांत हो गया।
अपने लिए कम
“बेटा ले ये दो टुकड़े मिठाई के हैं। इनमें से यह छोटा टुकड़ा अपने साथी को दे देना।”
“अच्छा माँ” और वह बालक दोनों टुकड़े लेकर बाहर आ गया अपने साथी के पास। साथी को मिठाई का बड़ा टुकड़ा देकर छोटा स्वयं खाने लगा। माँ यह सब जंगले में से देख रही थी, उसने आवाज देकर बालक को बुलाया।
“क्यों रे ! मैंने तुझसे बड़ा टुकड़ा खुद खाने और छोटा उस बच्चे को देने के लिए कहा था, किंतु तूने छोटा स्वयं खाकर बड़ा उसे क्यों दिया ?”
वह बालक सहज बोली में बोला- “माताजी ! दूसरों को अधिक देने और अपने लिए कम से कम लेने में मुझे अधिक आनंद आता है।”
माताजी गंभीर हो गईं। वह बहुत देर विचार करती रहीं बालक की इन उदार भावनाओं के संबंध में। उसे लगा सचमुच यही मानवीय आदर्श है और इसी में विश्व शांति की सारी संभावनाएँ निर्भर हैं। मनुष्य अपने लिए कम चाहे और दूसरों को अधिक देने का प्रयत्न करे तो समस्त संघर्षों की समाप्ति और स्नेह-सौजन्य की स्वर्गीय परिस्थितियाँ सहज ही उत्पन्न हो सकती हैं।